14, Jul 2022

ज्योतिष की गागर में सागर - लघु पराशरी के 42 सिद्धांत

ज्योतिष को वेदों का मूल कहा गया है। वैदिक ज्योतिष विद्या एक बड़े वट वॄक्ष के समान है। इसकी अनेक शाखाएं है। या यूं कहें कि एक नदी की अनेक धाराएं है, जिनका उदगम स्थल एक ही है। इन अनेक शाखाओं, धाराओं में से एक पराशरी पद्वति है, उसमें भी लघु पराशरी पद्वति को विशेष स्थान प्राप्त है। दशाओं में भी पराशरी दशा को खास महत्व दिया जाता है। पाराशरी ज्योतिष के फलित सिद्धांतों को सार रुप में लघु पराशरी में बताया गया है। ज्योतिष विद्या के महासागर को 42 सूत्रों के घटों में समेटा गया है। गागर में सागर भरने का कार्य इसे कहा जा सकता है।  

लघु पराशरी के 42 सिद्धांत स्वयं में सिद्ध मंत्र के समान फल देते है। फलित करने में अचूक, अमोघ है। जो सहज एवं सरल शब्दों में गूढ़ ग्यान देते है। इसे अमूल्य सिद्धातों की श्रेणी में भी रखा जा सकता है। संपूर्ण ज्योतिष विद्या 9 ग्रहों, 27 नक्षत्रों, 12 राशियों और 12 भावों पर आधारित ज्योतिष है। इनका संयोग, अध्ययन और शोध ही फलादेश के रुप में सामने आता है।
 
लघु पराशरी सिद्धांतों में मुख्य रुप से मारक ग्रह और मारक दशाओं के विषय में कहा गया है। इन्हीं में से मारकेश ग्रहों की दशा है, जिसमें मारकेश ग्रहों के सिद्धांतों के बारे में कहा गया है। लघु पाराशरी के 42 सूत्र जो श्लोकों के रुप में लिखित है। पांच अध्यायों में इन 42 सूत्रों को बांटा गया है। पांच अध्याय इस प्रकार हैं-

1 संज्ञाध्याय 2 योगाध्याय 3 आयुर्दायाध्याय 4 दशाफलाध्याय 5 शुभाशुभग्रहकथनाध्याय

लघु पाराशरी के 42 सूत्र इस प्रकार है-

1. लघु पाराशरी के अनुसार फलित करने के लिए विंशोत्तरी दशा का ही प्रयोग करना लाभकारी है। नक्षत्रों पर आधारित दशाएं ही शुभ-अशुभ फल कथन करने के लिए विशेष रुप से प्रयोग करनी चाहिए। लघु पराशरी में अष्टोत्तरी द्शाओं को स्थान नहीं दिया गया है।   
2. भाव और राशि को ध्यान में रखते हुए फलादेश करना चाहिए।
3. प्रत्येक ग्रह अपने से सप्तम भाव को दॄष्ट करते है। जिसमें से शनि 3रें, 10वें, गुरु 9वें और 5वें, मंगल 4थे, 8वें को दॄष्ट करते है।  
4. त्रिकोणेश शुभ फल देते है और 3, 6 व 11वें भावेश अशुभ फल देते है।
5. 3, 6 और 11वें भाव के स्वामी त्रिकोण भाव के स्वामी भी हो तो वो अशुभ हो जाते हैं।  
6. शुभ ग्रह केंद्र के स्वामी होने पर शुभफलदायक नहीं रह जाते है।   
7. इसके विपरीत अशुभ ग्रह केंद्र के स्वामी होने पर शुभफलदायक हो जाते है। केंद्र भाव भी उत्तरोत्तर बली होते है।  
8. लग्न से द्वितीय भाव का स्वामी शुभ ग्रहों के साथ शुभ और अशुभ ग्रहों के साथ अशुभ फल देता है। इन भावों के स्वामी स्वफल नहीं दे पाते हैं।  
9. लग्नेश सदैव शुभ, लग्नेश अष्टमेश भी हो तब भी शुभ। अन्य में अष्ट्मेश शुभ फल नहीं देता।  
10. शुभ ग्रहों को केंद्र में होने का दोष लगता है। जिसमें गुरु और शुक्र विशेष है। केंद्राधिपति ग्रह मारक भाव में स्थित हो तो अत्यधिक मारक हो जाते हैं।  
11. अष्ट्म भाव और अष्टमेश दोनों को अशुभ कहा गया है। इसमें सूर्य और चंद्र को अष्ट्म का दोष नहीं लगता है।
12. मंगल केवल दशम भाव का स्वामी हो तो अशुभ फलदायी हो जाता है। परन्तु योगकारक होने पर शुभ फल देता है। जैसे- कुम्भ लग्न के लिए मंगल द्शमेश होने पर भी शुभ नहीं होता।   
13. राहु/केतु जिन भावों में स्थित होते हैं, और जिन ग्रहों के साथ होते है, उस भाव और उन ग्रहों के फलों को स्वयं देते है।
14. केंद्र और त्रिकोण का स्वामी जो ग्रह हो वह योगकारक होकर शुभ हो जाता है। योगकारक ग्रहों से संबंध बनाने वाले ग्रह भी शुभता से युक्त होते हैं।
15. योगकारक ग्रह अशुभ प्रभाव में भी हो तब भी शुभ फलदायक होते है।  
16. नवमेश दशम में और दशमेश नवम भाव में हो तो दोनों योगकारक का फल देते है।
17. त्रिकोण भावों के स्वामियों के साथ केंद्र के स्वामियों का संबंध होना शुभता देता है। इसे राजयोग के समान फलदायी कहा गया है।
18. योगकारक ग्रहों की दशा शुभ फलदायी कही गई है। इसी प्रकार शुभ ग्रहों की दशाएं भी शुभ फलों से युक्त होती है।  
19. अशुभ ग्रह योगकारक ग्रहों से संबंध रखें तो वह भी अंशात्मक शुभ फल दे सकता है।
20. योगकारक ग्रह यदि त्रिकोण में स्थित हो जाए तो अत्यधिक शुभ फल देता है।
21. राहु/केतु केंद्र मे स्थित हो या योगकारक ग्रहों से संबंध बनाए तो स्वयं भी योगकारक ग्रहों के समान फल देते है।  
22. नवम और दशम भाव के स्वामी यदि अष्टम या एकादश भाव के स्वामी भी हो तो राजयोग भंग हो जाता है।  
23. अष्टम भाव आयु भाव है, तीसरा भाव भी आयु भाव है(अष्टम से अष्ट्म), द्वितीय और सप्तम भाव भी मारक भाव होने के कारण मारक स्थिति के लिए देखने चाहिए।
24. मृत्यु का अध्ययन करने के लिए सप्तम भाव पर मारकेश और अशुभ ग्रहों की युति की दशा अवधियों में मृत्यु होने के योग बनते है।  
25. सप्तमेश और द्वितीयेश ग्रहों की दशाओं में मृत्यु के योग बनते है।
26. मारक ग्रहों के अलावा पाप ग्रहों की दशाओं में भी मृत्यु के योग बनते है। इसमें द्वादशेश, अष्ट्मेश और तृतीयेश की दशाओं में भी मृत्यु हो सकती है।  
27. पापी ग्रह बलवान हो तो मृत्यु समान कष्ट प्राप्त होते है। इसे मरण के समान ही समझना चाहिए।
28. शनि पापी होकर, मारक ग्रहों से युति बनाए तो पूर्ण मारकेश हो जाता है।  
29. ग्रह अपने भाव के अनुसार शुभ और अशुभ फल देते है। ग्रह यह फल दशा और अंतर्द्शा में करते है।  
30. दशानाथ से संबंध रखने वाले ग्रह भी अपनी अंतर्दशानाथ में दशानाथ जैसे फल देते है।  
31. दशानाथ और अंतर्द्शा दोनों में मिलने वाले फल कल्पना युक्त हो सकते है।  
32. कोई ग्रह केंद्र का स्वामी हो और त्रिकोणेश से संबंध रखें तो शुभ फल प्राप्त होते है। इसी तरह त्रिकोणेश भी केंद्र के स्वामी के समान फल देता है। दोनों का आपसी संबंध न होने पर अशुभ फल मिलता है।  
33. मारक ग्रहों की अंतर्द्शा में राजयोगकारक होने पर भी केवल मध्यम फल देती है। पूर्ण शुभ फल नहीं दे पाती है।
34. राजयोग बनाने वाले शुभ ग्रहों की अंतर्दशा में सुख और प्रतिष्ठा दोनों मिलती है। शुभ ग्रह हों और राजयोग बनाने वाले ग्रहों से संबंध ना हो तो अंतर्द्शाफल सम रुप में प्राप्त होते है।  
35. योगकारक ग्रह से शुभ ग्रह संबंध बनाए तो शुभ ग्रहों की महादशा शुभ फल देती है।
36. केंद्र या त्रिकोण में स्थित हो राहु/केतु किसी भी ग्रह से संबंध ना बनाए तो शुभ फल प्राप्त होते है। पाप ग्रहों के प्रभाव में इन्हें नहीं होना चाहिए।  
37. महादशानाथ पाप ग्रहों से संबंध बनाए और शुभ ग्रह जिसका संबंध पाप ग्रहों से नहीं होने पर भी अशुभ फल ही प्राप्त होता है।  महादशानाथ पाप ग्रहों से संबंध बनाने वाले शुभ ग्रह अंतर्दशा में मिला जुला फल देते है।
38. दशानाथ पापग्रस्त हो और योगकारक ग्रह इनसे संबंध ना बनाए तो अपनी अंतर्द्शा में अशुभ फल देते है।  
39. महादशानाथ मारक ग्रह हों और अंतर्द्शानाथ की दशा भी शुभ फल दे सकती है परन्तु दोनों का संबंध ना हो तो पाप ग्रह अपनी दशा में मारक फल देते है।
40. शनि महादशा में शुक्र की अंतर्द्शा होने पर शनि के फल और शुक्र की महादशा में शनि की अंतर्द्शा होने पर शुक्र के फल ही मिलते है।
41. दशमेश लग्न में हो और लग्नेश दशम में हो तो राजयोग कारक फल मिलते है।
42. नवमेश दशम में और दशमेश नवम में हो तो राजयोग के समान फल मिलते है।