16, Aug 2022

विवाह में विलम्ब या अविवाहित

किसी ने सच ही कहा है कि ‘जोड़ियां स्वर्ग में तय होती हैं’। भविष्य के गर्भ में क्या छुपा हैं, यह जानने में वैदिक ज्योतिष महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।  एक विद्वान ज्योतिष ईश्वरीय कृपा से जन्मपत्री के माध्यम से विवाह होगा या नहीं, शीघ्र या देरी से होगा तथा विवाह की सफलता और असफलता का संकेत देने कार्यकुशलता पूर्वक कर सकता है।

नवग्रहों में गुरु और शनि को मंदगति ग्रह कहा गया है। गुरु एक नैसर्गिक शुभ ग्रह होने से जीवन में शुभता देता है तो शनि नैसर्गिक अशुभ ग्रह होकर बाधा उत्पन्न करता है। शनि का गोचर एक राशि में लगभग ढाई वर्ष और गुरु का एक वर्ष रहता है। विवाह से संबन्धित भाव, भावेश और कारक यदि शनि या गुरु की राशि में हों तो विवाह में देरी करेगा।  इस स्थिति में शनि विवाह में देरी या अपने से अधिक आयु का जीवनसाथी दे सकता है। सप्तम भाव में स्थिर राशि विवाह में देरी दे सकती है।

इसी प्रकार वक्री ग्रह का विवाह के भाव,  भावेश,  कारक से सम्बन्ध् बनने से भी विवाह में देरी व नकारात्मक परिणाम सामने आते हैं। यह विचारणीय तथ्य हैं कि शनि ही क्यों विवाह में बाधा डालता है और भी तो अन्य पापी ग्रह हैं उनका इतना प्रभाव क्यों नहीं होता। इसके कई कारण है, एक तो शनि मंदगति ग्रह हैं, दूसरे यह एकाकी प्रकृति का है।

उसपर भी जन्मपत्री में शनि की सूर्य, चन्द्रमा, मंगल से युति अधिक अनिष्टप्रद हो जाता है। शनि के वक्री होकर द्वितीय, पंचम, सप्तम एवं एकादश भावों को प्रभावित करने पर जातक की शादी   की सम्भावना कम हो जाती है।

शनि देरी,  उदासीनता,  बाधा और नकारात्मकता आदि विषयों के कारक ग्रह है। शास्त्रों में भी कहा है कि पंचमस्थ शनि की विवाह के भाव सप्तम, एकादश तथा द्वितीय भाव पर दृष्टि विवाह में देरी कर सकती है और यदि अधिक पाप प्रभाव हो तो अविवाहित जीवन की स्थिति रहती हैं या विवाह होकर टूट जाता है।

सूर्य-शनि पिता पुत्र होने के बावजूद नैसर्गिक शत्रु हैं। सूर्य, शनि की उच्च की राशि में नीच का होता है। सूर्य अग्नि है तो शनि एकदम ठंडा. अतः सूर्य व शनि का विवाह संबंधित भाव,  भावेश, कारक ग्रहों से संबंध् नकारात्मक परिणाम देते हैं। लग्न, सप्तम भाव, सप्तमेश या विवाह का कारक शुक्र चन्द्र, शनि,  सूर्य से प्रभावित होंगे अविवाहित योग दे सकते हैं। लेकिन इस योग पर यदि गुरु की दृष्टि अथवा युति हो जाए तो बाधाओं के बाद देरी से विवाह हो सकता है।

बृहत पराशर होराशास्त्र के अनुसार-

  • यदि शुक्र नवम भाव से नवें में (पंचम भाव) हो और उन दोनों में से एक में राहु हो तो इकत्तीसवें या तैंतीसवें वर्ष में विवाह होगा ।
  • इन शास्त्रों में बाइसवें या तेइसवें वर्ष की आयु को विवाह हेतु बहुत अधिक उपयुक्त माना जाता था, अतः यहां देश-काल-पात्र को ध्यान में रखना आवश्यक होगा।
  • यदि शुक्र नवम भाव से सातवें हो और शुक्र से सातवें में सप्तमेश हो तो तीसवें या सत्ताइसवें वर्ष में विवाह होता है ।

फलदीपिका के अनुसार -

स्त्री की कुंडली में सूर्य-मंगल तथा पुरूष की कुंडली में चन्द्रमा-शुक्र, पापी ग्रहों के साथ हो तब भी विवाह देरी से होता है।

भावचन्द्रिका के अनुसार -

यदि शुक्र,  सप्तमेश,  लग्न/लग्नेश यह सभी स्थिर राशि में हों और बलहीन चन्द्रमा चर राशि में हो तो विवाह तीसवें वर्ष में होता है और यदि शनि भी युति कर ले तो विवाह पचासवें वर्ष में होता है।

प्रयोग किए गए सूत्र -

  • शनि-चन्द्र, चन्द्र-शुक्र अथवा शनि-चन्द्र-शुक्र युति, शनि-शुक्र की युति।
  • सप्तमेश, शुक्र, लग्न तथा चन्द्रमा का पाप ग्रहों से निकटतम अंशों पर पीड़ित होना।
  • बुध् व शुक्र की निकटतम अंशों पर युति।
  • सप्तम भाव/सप्तमेश, लग्न/लग्नेश, शुक्र, गुरु तथा चन्द्रमा का पापकर्तरी में होना।
  • सप्तमेश, शुक्र तथा गुरु का राहु-केतु अक्ष में होना।
  • पंचमस्थ शनि की सप्तम, एकादश, द्वितीय भाव पर दृष्टि विवाह में देरी,  विवाह न होना तथा उदासीनता देता है।
  • स्त्री की कुंडली में एकादस्थ शनि की मांगल्य स्थान (लग्न-पंचम-अष्टम) पर दृष्टि विवाह न होने के स्थान पर देरी को दर्शाती है क्योंकि शनि एक मंदगति ग्रह होकर अवरोध के अष्टम भाव ( स्त्री के लिए मांगल्य थान होने के साथ-साथ अवरोध् का भी है) को दृष्टि देता है।
  • कर्क राशिस्थ शनि भी विवाह में बाधा उत्पन्न करता है।
  • सूर्य-शनि द्वारा यदि लग्न, सप्तम भाव/सप्तमेश, द्वितीयेश, मंगल अथवा शुक्र पापकर्तरी योग में हो, तो भी विवाह में विलम्ब होता है। सूर्य-शनि का एक राशि में होना भी विवाह प्रतिबन्धक योग होता है।
  • शुक्र, चन्द्रमा व सूर्य का शत्रु है अतः इनकी समान अंशों पर एक ही राशि में युति अनिष्टकारी है जिससे वैवाहिक सुख अवरुद्ध होता है अथवा विलम्ब से विवाह होता है। शुक्र नीच का हो और पापप्रभाव में भी हो तो विवाह में देरी होती है।

आइये अब कुछ कुंडलियों पर निम्न सूत्रों का अध्ययन करके देखते हैं -

उदाहरण- 1  (विवाह में विलम्ब)

विवाह की तिथि - 20 अप्रैल, 1987 पुरुष - 19 अप्रैल 1958, 11:43, बरेली, जन्मकुंड्ली और नवांश कुंड्ली

वक्री ग्रह यदि सप्तमेश,  शुक्र या गुरु है तो विवाह में देरी करा सकता है। यहां सप्तमेश शनि छठे भाव में होकर वक्री है। शनि का लग्न या लग्न के अंशों के निकट स्थित होना विवाह में देरी दे सकता है।  शुक्र अष्टम भाव में मंगल के साथ है और वक्री गुरु तथा वक्री शनि से दृष्ट है। मंगल-शनि का दृष्टि   संबंध विवाह में विलम्बकारक है और यहां विवाह कारक गुरु भी राहु-केतु अक्ष में पीड़ित है. सप्तम भाव पापकर्तरी में है। सप्तमेश राहु-केतु के अंशों के निकट है। गुरु भी निकटतम अंशों के निकट ही स्थित है.    

महिला - 05 नवम्बर 1961, 16:02, पिलखुआ

महिला की कुंड्ली में सप्तम भाव, शुक्र और चन्द्रमा सभी पापकर्तरी में हैं। शनि की एकादश भाव से पंचम, लग्न तथा अष्टम भाव पर दृष्टि है जो स्त्री की कुंडली का मांगल्य भाव (आठवां) है और साथ ही, अवरोध् का भी कारक है। शनि की अष्टमस्थ सप्तमेश पर दृष्टि विवाह में विलम्ब दे रही हैं. लग्नेश गुरु एकादश भाव में नीच के शनि के साथ स्थित है और वहां से सप्तम भाव को प्रभावित करके विवाह में देरी को दर्शा रहे हैं। सप्तमेश और अष्टमेश का राशि परिवर्तन भी है।

उदाहरण - 2

विवाह में विलम्ब व तनाव उदाहरण - पुरुष - 16 नवम्बर 1978, 14 : 01, मोदीनगर, उ.प्र.

जन्मकुंडली एवं नवांश कुंडलीविवाह - 28 नवम्बर, 2010

इस जातक की पत्नी विवाह के दो माह बाद ही झगड़े के कारण 2 फरवरी, 2011 को घर छोड़कर चली गई। अदालत में याचिका दायर है परन्तु पति तलाक नहीं चाहता है। शनि की सप्तम भाव में स्थिति विवाह में देरी दे रही है। शनि लग्न तथा चन्द्रमा के समीपतम अंशों पर स्थित है। शनि सप्तम भाव में सूर्य की राशि में है। शनि का सूर्य या चन्द्रमा से अथवा लग्न या सप्तम भाव से संबंध् विवाह में अवरोध दे रहा है.

कुंडली में विवाह का कारक शुक्र भी वक्रीय है तथा मंगल से समान अंशों पर स्थित है। शनि चन्द्रमा व शुक्र के समीपतम अंशों पर होने के साथ दोनों से दृष्टि संबंध् भी बनाए हुए है। षष्ठस्थ गुरु की सप्तमेश सूर्य तथा पंचमेश बुध पर दृष्टि है। सप्तमेश सूर्य, राहु-केतु से निकटतम अंशों पर स्थित है। नवांश में भी कारक शुक्र द्वादशस्थ हैं और शनि व मंगल से पापदृष्ट हैं। अष्टमस्थ गुरु की भी द्वादशस्थ शुक्र पर दृष्टि है। इस प्रकार से जन्मकुंडली तथा नवांश दोनों में कारक शुक्र व सप्तमेश पाप प्रभाव में हैं। शनि की सप्तम भाव में स्थिति ने विवाह में देरी के साथ वैवाहिक जीवन को तनावग्रस्त भी कर दिया।

उदाहरण - 3

विवाह में विलम्ब पुरुष - 22 मई 1970, 21: 50, दिल्लीजन्मकुंडली , नवांश

सप्तमेश बुध् नीच के शनि के साथ पंचम भाव में स्थित है और शनि वहाँ से एकादश भाव (इच्छापूर्ति) तथा अपने द्वितीय भाव को भी दृष्टि दे रहा है। द्वितीय, पंचम, सप्तम व एकादश ये सभी विवाह से संबंधित भाव शनि के नीचत्व से प्रभावित हैं। चन्द्रमा भी नीच का होकर द्वादश में स्थित है और द्वादशेश मंगल से भी दृष्ट है।

नीच का शनि पंचम से सप्तम थ शुक्र, एकादशस्थ बृह पति को अपनी दृष्टि दे रहे हैं। ये दोनों ग्रह विवाह के कारक ग्रह होकर नीच के शनि से पीड़ित हैं। सप्तमेश बुध् का निकटतम अंशों पर नीच के शनि के साथ युति है। शनि व चन्द्रमा, शुक्र व गुरु तथा सप्तमेश विवाह में देरी या अविवाहित होने के प्रमुख कारण होते हैं। यहां ये सभी ग्रह शनि व मंगल के पाप प्रभाव में हैं तथा शुक्र, बृहस्पति व सप्तम भाव राहु से दृष्ट है। राहु का राशीश भी शनि ही है। वक्री गुरु की पंचम तथा सप्तम भाव पर दृष्टि है। 

उदाहरण -4

अविवाहितअटल बिहारी वाजपेयी, 25 दिसम्बर 1924, 05:45, ग्वालियर,म.प्र.जन्मकुंडली 

चन्द्रमा लग्न में नीच का होकर स्थित है और वहां से उसकी सप्तम भाव पर भी दृष्टि है। लग्न में शुक्र सप्तमेश होकर स्थित है और अपने सप्तम भाव को शुभ दृष्टि दे रहा है। चन्द्र-शुक्र की लग्न में युति ने वाजपेयी जी को कविताएं लिखने की रूचि दी।

लग्न तथा चन्द्रमा राहु-केतु से निकटतम अंशों पर हैं। षष्ठेश मंगल का सूर्य से अंशात्मक संबंध् ने भी विवाह में अवरोध दिया। पृथकतावादी ग्रह शनि द्वादश भाव से कुटम्ब के द्वितीय भाव को अपनी पाप दृष्टि से प्रभावित कर रहे हैं। कुटुम्ब भाव में गृहस्थ सुख का कारक गुरु स्थित है लेकिन शनि से दृष्ट है। अष्टमेश वक्री बुध् के साथ स्थित है।

नवांश में, लग्न और सप्तम भाव दोनों राहु-केतु व सूर्य के पाप प्रभाव में हैं। शनि की तृतीय भाव से पंचम संतान भाव पर दृष्टि है। विवाह का कारक शुक्र भी मंगल से पीड़ित है। लग्न, कारक शुक्र और गुरु सभी पापाक्रांत हैं जिससे विवाह की दशा आने पर भी इनका विवाह फलीभूत नहीं हुआ।

उदाहरण -5

अविवाहितमहिला, 06 अप्रैल 1979, 05: 45, देहरादूनजन्मकुंडली

लग्नेश गुरु तथा मंगल में अंशात्मक समानता है। लग्न मंगल, सूर्य व वक्रीय बुध् से घिरा हुआ है। विवाह का कारक शुक्र राहु-केतु अक्ष में है और षष्ठस्थ वक्री शनि से दृष्ट है। शनि और शुक्र में भी 10 की अंशात्मक निकटता है। फलदीपिका के अनुसार, यदि चन्द्रमा और शुक्र पापी ग्रहों के प्रभाव में हो तो विवाह में विलम्ब होता है।  सप्तमेश बुध् वक्री तथा नीच का होकर लग्न में स्थित है नवांश में भी लग्न व सप्तम भाव राहु-केतु अक्ष में है। 

उदाहरण- 6

अविवाहितमहिला, 22 अक्तूबर 1968, 17:10, हापुड़जन्मकुंडली, नवांश- कुंडली

वक्री शनि लग्न में राहु-केतु अक्ष में है और वहां से सप्तम भाव के साथ सप्तमेश बुध् को भी प्रभावित कर रहा है। शनि लग्न से निकटतम अंशों पर स्थित है। सप्तमेश बुध् वक्री है। सप्तमेश बुध् राहु-केतु अक्ष में पीड़ित है। गुरु, सप्तम भाव तथा सप्तमेश सभी पापकर्तरी में हैं। नवांश में भी शुक्र नीच का होकर अष्टमस्थ है तथा वक्री शनि से दृष्ट है।

उदाहरण-7

विवाह में विलम्बमहिला, 23 सितम्बर 1980, 23:00, हापुड़जन्मकुंडली- नवांश

जातिका का रिश्ता दो बार टूट गया था और अभी तक कोई रिश्ता नहीं हुआ है। गुरु अस्त है और शुक्र राहु-केतु अक्ष में है। बुध्/शुक्र में रिश्ता टूटा था। शुक्र तथा राहु दोनों लग्नेश बुध् के नक्षत्र में हैं। गुरु, शुक्र, बुध्, चन्द्रमा तथा मंगल सभी राहु-केतु से निकटतम अंशों पर स्थित हैं। शनि लग्न व लग्नेश दोनों को प्रभावित कर रहा है। नवांश में शनि की सप्तम भाव और चन्द्रमा पर दृष्टि है परंतु अस्त होने के  कारण रिश्ता तोड़ दिया और विवाह में देरी भी की। सप्तमेश और लग्नेश दोनों पापप्रभाव में हैं.

उदाहरण-8

विवाह में विलम्बमहिला, 23 अगस्त 1980, 13:55, दिल्लीजन्मकुंडली

शुक्र सप्तमेश होकर अष्टम भाव में स्थित है। शुक्र लग्न से समान अंशों पर है। शुक्र पर राश्यांत में स्थित चन्द्रमा की द्वितीय भाव से दृष्टि हैं। शनि की एकादश भाव से लग्न, पंचम तथा अष्टम (मांगल्य भाव) पर दृष्टि है। अष्टमेश बुध् लग्नेश से निकटतम अंशों पर है। कुंडली में मंगल द्वादश भाव से सप्तम को प्रभावित कर रहा है और शनि भी बड़े भाई का प्रतिनिधित्व करने वाले एकादश भाव में स्थित हैं और वहां से सप्तमेश शुक्र को देखते हैं। फिर विलंब के बाद 15 अप्रैल, 2012 को इनका विवाह हुआ.

उदाहरण-9

विवाह में विलम्ब25 अक्तूबर 1975, 20:59, हापुड़जन्मकुंडली, नवांश 

द्वितीयस्थ शनि की चतुर्थ, एकादश और अष्टम भाव पर दृष्टि है जो व्यसन भी देता है। पंचम तथा एकादश भाव राहु-केतु अक्ष में है। सप्तमेश गुरु भी वक्री है। नवांश में, शनि का एकादश भाव में होना इच्छापूर्ति में बाधा को दर्शाता है. इनका अभी तक विवाह नहीं हुआ है परंतु संबंध् बना हुआ है।

उदाहरण 10

विवाह में विलम्ब27 जनवरी 1981, 19:01, मेरठजन्मकुंडली 

एक रिश्ता टूटने के बाद 2009 में विवाह हो गया। सप्तमेश शनि वक्री है। शनि गुरु के साथ तृतीय भाव में समान अंशों पर होकर स्थित है। शनि व गुरु, राहु-केतु से निकटतम अंशों पर हैं। लग्न राश्यांत में है और राहु-केतु अक्ष में भी है। लग्न पर मंगल व सूर्य की दृष्टि है। नवांश में शुक्र-चन्द्र-राहु एक साथ हैं।