14, Sep 2022

पितृपक्ष - गया धाम, पितृ तीर्थ धाम

सनातन धर्म में यानी हिन्दू में ‘पितृपक्ष’ का बहुत ही अधिक महत्व है। इस साल पितृपक्ष कल से शुरू हो गया है। शास्त्रों के अनुसार, पितृपक्ष 16 दिनों के होते हैं। ये भाद्रपद मास की पूर्णिमा से शुरू होकर आश्विन मास की अमावस्या तक चलते हैं।  

मान्यता है कि, पितृपक्ष के दौरान पूर्वज धरती पर आते हैं और श्राद्ध व तर्पण के रूप में अपने वंशजों से भोजन और जल ग्रहण करते हैं। इन श्राद्ध के दिनों में मनुष्य अपने पितरों और पूर्वजों के ऋण को चुकाता है। कोई यह पूछ सकता है कि सनातनी और हिन्दू मान्यताएं के अनुसार मनुष्य तो पुनर्जन्म लेता है तो ऐसे किसी के लिए प्रार्थना करने की क्या आवश्यकता जो कईं वर्षों पहले ही मृत्यु को प्राप्त कर चुका हो? मैं कोई इस विषय में एक्सपर्ट नहीं परन्तु जहाँ तक मैंने पढ़ा जाना है, ऐसा माना जाता है कि मृत्यु के पश्चात्‌ जीवात्मा सीधे स्वर्ग नहीं जाती और कुछ पीढ़ियों तक पितृ लोक में ही रहती है। उसके पश्चात्‌ भावी पीढ़ियों द्वारा श्राद्ध कर्म के कारण ही वे स्वर्ग को जाती हैं। हमारी मान्यताओं के अनुसार हमारे पूर्वजों का बहुत कुछ अंश हम सभी में होता है और उनकी शान्ति के लिए श्राद्ध करना हमारा धर्म है। स्वर्ग में भी आत्मा सदा के लिए नहीं रहती और जब उनके कमाए पुण्यों का ह्रास हो जाता है तो वे फिर से जन्म लेते हैं अथवा मोक्ष को प्राप्त करते हैं।

जब पाण्डु को श्राप मिला कि स्त्री सम्भोग का प्रयास करते ही उनकी मृत्यु हो जाएगी तब वे अपनी दोनों पत्नियों कुन्ती और माद्री के साथ वन को चले जाते हैं। वन में ऋषि मुनियों के सानिध्य में रहते हुए एक दिन वे देखते हैं कि ऋषि मुनि ब्रह्मलोक में ब्रह्मा के दर्शन को जा रहे थे। पाण्डु उनसे आग्रह करते हैं कि वे उन्हे और उनकी पत्नियों को भी साथ ले लें। ऋषि कहते हैं कि वे उन्हे साथ नहीं ले जा सकते क्योंकि उन्हे अभी पितृ ऋण चुकाना है। पाण्डु कहते हैं कि मैं जानता हूँ कि मनुष्य चार प्रकार के ऋण: देव ऋण, ऋषि ऋण, मनुष्य ऋण और पितृ ऋण चुकाए बिना लोक नहीं त्याग सकता और मैंने अन्य सभी ऋण चुका दिए हैं, किन्तु वे पितृ ऋण कैसे चुकाएंगे, क्योकिं उनको मिले श्राप के कारण वे कभी सन्तान उत्त्पति नहीं कर पाएंगे और पितृ ऋण केवल मनुष्य अकेला नहीं चुका सकता, उसकी भावी पीढियां भी चुकाती हैं। जिस पर ऋषि मुनि पाण्डु से कहते हैं कि उन्होने देखा है कि भविष्य में पाण्डु पांच ओजस्वी पुत्रों के पिता होंगे जो उनके सभी कर्त्तव्यों का निर्वहन करेंगे। उनके ऐसा कहने के बाद ही पाण्डु कुन्ती से ऋषि दुर्वासा से सीखे हुए मन्त्र का प्रयोग करते हुए पुत्रप्राप्त करने को कहते हैं, और उसके बाद जो होता है उससे एक महागाथा आरम्भ होती है। 

एक और पौराणिक कथा मिलती है महाभारत के योद्धा कर्ण के बारे में। जिसमें कहा गया है कि जब कर्ण की मृत्यु होने के बाद उनकी आत्मा स्वर्ग लोक में पहुंची तो वहां पर उन्हें भोजन में खाने के लिए ढ़ेर सारा सोना और सोने से बने आभूषण दिए गए। तब कर्ण की आत्मा को कुछ समझ में नहीं आया। तब कर्ण की आत्मा ने देवराज इंद्र से पूछा कि उन्हें खाने में सोने की चीजें क्यों दी जा रही है। कर्ण के सवाल के जवाब में देवराज इंद्र ने बताया की तुमने अपने जीवन काल में सोना ही दान किया था। कभी भी अपने पूर्वजों को खाना की चीजों का दान उन्हें नहीं दिया इस कारण से तुम्हें भी सोना ही खाने को दिया गया। इस पर कर्ण ने कहा कि मुझे अपने पूर्वजों के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था इसलिए उन्हें कुछ भी दान नहीं कर पाया। तब स्वर्ग से कर्ण को अपनी गलती सुधारने के लिए मौका दिया गया और उन्हें दोबारा 16 दिनों के लिए वापस पृथ्वी पर भेजा गया। इसके बाद 16 दिनों तक कर्ण ने अपने पूर्वजों को याद करते हुए उन्हें भोजन अर्पित किया। तब से इसी 16 दिनों को पितृ पक्ष कहा जाने लगा।

हम आजकल की पीढियों को हमारे पूर्वजों का आभारी होना चाहिए कि जहाँ इस देश में अनेकों आक्रमण और सांस्कृतिक मिलावट होने के बाद भी इस प्रथा का आज तक पालन किया जाता है। मेरी आपसे विनती है कि यदि आप विधि विधान नहीं भी मानते हों तो भी अपने दादा, पड़दादा की आत्मा की शान्ति के लिए थोड़ा जल लेकर तर्पण अवश्य करने का प्रयास करें।

पितृपक्ष में दान का बहुत महत्व है। मान्यता है कि, इस दौरान किए कए दान का फल जीवात्मा को स्वर्गलोक में प्राप्त होता है।  इस दौरान अपनी सामर्थ्य के अनुसार आप अनाज, वस्त्र, धन, मिष्ठान, सोना, चांदी आदि दान कर सकते है। साथ ही श्राद्ध पक्ष में इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि, यदि कोई भिक्षा मांगने आए तो उन्हें कभी खाली हाथ नहीं जाने देना चाहिए। माना जाता है कि इस समय हमारे पितर किसी भी रूप में धरती पर आ सकते हैं।

बात पितृपक्ष को हो और गया विष्णुपद मंदिर का जिक्र न हो तो फिर बात अधूरी समझी जाएगी। "विश्व में धर्म का देश" कहे जाने वाले भारत में बहुत से ऐसे नगर, राज्य और स्थान हैं जिनका  महत्व अलौकिक है। लेकिन बिहार के गया को विश्व में मुक्तिधाम के रूप में जाना जाता है, और ऐसी मान्यता है कि गयाजी में पिंडदान करने से पितरों की आत्मा को मुक्ति मिल जाती  है। यहां देशभर से कई लोग अपने पितृ ऋण से मुक्ति व पितरों की आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध कर्म और पिंडदान करते हैं। मान्यता है कि यहां पिंडदान और श्राद्ध करने से आत्मा को जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है। यहां केवल अपने ही देश से नहीं बल्कि विदेशों से भी लोग आते हैं। बिहार के गया धाम का जिक्र गरूड़ पुराण समेत ग्रंथों में भी दर्ज है। कहा जाता है कि गयाजी में श्राद्ध करने मात्र से ही आत्मा को विष्णुलोक प्राप्त हो जाता है। 

कहा जाता है कि वनवास काल के दौरान भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण के  साथ पिता दशरथ का श्राद्ध करने गया धाम पहुंचते हैं। पिंडदान के लिए राम और लक्ष्मण जरूरी  सामान लेने जाते हैं और माता सीता उनका इंतजार करती हैं। काफी समय बीत जाने के बावजूद दोनों भाई वापस नहीं लौटते तभी अचानक राजा दशरथ की आत्मा माता सीता के पास आकर पिंडदान की मांग करती है। राजा दशरथ की बार बार करुण गुहार व मांग पर माता सीता फल्गू नदी के किनारे बैठकर वहां लगे केतकी के फूलों और गाय को साक्षी मानकर बालू के पिंड बनाकर उनके लिए पिंडदान करती हैं। कुछ समय बाद जब भगवान राम और लक्ष्मण सामग्री लेकर लौटते हैं, तब सीता उन्हें बताती है कि वे महाराज दशरथ का पिंडदान कर चुकी हैं। इस पर श्रीराम बिना साम्रगी पिंडदान को मानने से इंकार करते हुए उन्हें इसका प्रमाण देने को कहते हैं। भगवान राम के प्रमाण पर सीता ने केतकी के फूल, गाय और बालू मिट्टी से गवाही देने के लिए कहा, लेकिन वहां लगे वटवृक्ष के अलावा किसी ने भी सीताजी के पक्ष में गवाही नहीं दी। इसके बाद सीताजी ने महाराज दशरथ की आत्मा का ध्यान कर उन्हीं से गवाही देने की प्रार्थना की। उनके आग्रह पर स्वयं महाराज दशरथ की आत्मा प्रकट हुई और उन्होंने कहा कि सीता ने उनका पिंडदान कर दिया है। अपने पिता की गवाही पाकर भगवान राम आश्वस्त हो गए। वहीं फल्गू नदी और केतकी के फूलों के झूठ बोलने पर क्रोधित माता सीता ने फल्गू नदी को सूख जाने का श्राप दे दिया। श्राप के कारण आज भी फल्गू नदी का पानी सूखा हुआ है और केवल बारिश में दिनों में इसमें कुछ पानी होता है। 

फल्गू नदी के दूसरे तट पर मौजूद सीताकुंड का पानी सूखा ही रहता है, इसलिए आज भी यहां बालू मिट्टी या रेत से ही पिंडदान किया जाता है। गया में पहले 360 वेदियां थी, जहां पिंडदान किया जाता था लेकिन अब केवल 48 वेदियां ही बची हैं।

वायु पुराण में गया तीर्थ के बारे में बताया गया है कि... ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुरुः अंगनागमः, पापं तत्संगजं सर्वं गयाश्राद्धाद्विनश्यति। अर्थात गया में श्राद्ध कर्म करने से ब्रह्महत्या, स्वर्ण की चोरी आदि जैसे महापाप नष्ट हो जाते हैं। पितृ पक्ष में गया में पितरों का श्राद्ध-तर्पण करने से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त हो जाता है क्योंकि भगवान विष्णु स्वयं पितृ देवता के रूप में गया में निवास करते हैं इसलिए इस स्थान को पितृ तीर्थ भी कहा जाता है।