प्राचीन ज्योतिष ग्रंथों में पितृ दोष सबसे बड़ा दोष माना गया है। इससे पीड़ित व्यक्ति का जीवन अत्यंत कष्टमय हो जाता है। जिस जातक की कुंडली में यह दोष होता है, उसे धन अभाव से लेकर मानसिक क्लेश तक का सामना करना पड़ता है। पितृ दोष से पीड़ित जातक की उन्नति में बाधा रहती है। पितृ दोष के कारण हमारे सांसारिक जीवन में और आध्यात्मिक जीवन में बाधाएं उत्पन्न होती हैं। इस पर अनेक प्रकार के उपाय करने पर भी परिवार के सभी सदस्यों को कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। दैनिक जीवन में पितृ दोष के कई लक्षण दिखाई देते हैं।
ज्योतिष के अनुसार विवाह न हो पाना, वैवाहिक जीवन में अशांति, घर में क्लेश आदि पितृ दोष से होते हैं। हालांकि इसके कई अन्य कारण भी हो सकते हैं। जन्म कुंडली के प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम व दशम भावों में से किसी एक भाव पर सूर्य-राहु अथवा सूर्य-शनि का योग हो तो जातक को पितृ दोष होता है। यह योग कुंडली के जिस भाव में होता है उसके ही अशुभ फल घटित होते हैं। जैसे प्रथम भाव में सूर्य-राहु अथवा सूर्य-शनि आदि अशुभ योग हो तो वह व्यक्ति अशांत, गुप्त चिंता, दाम्पत्य एवं स्वास्थ्य संबंधी परेशानियाँ होती हैं।
दूसरे भाव में यह योग बने तो परिवार में वैमनस्य व आर्थिक उलझनें हों, चतुर्थ भाव में पितृ योग के कारण भूमि, मकान, माता-पिता एवं गृह सुख में कमी या कष्ट होते हैं।
पंचम भाव में उच्च विद्या में विघ्न व संतान सुख में कमी होने के संकेत हैं।
सप्तम में यह योग वैवाहिक सुख में नवम में भाग्योन्नति में बाधाएँ तथा दशम भाव में पितृ दोष हो तो सर्विस या कार्य व्यवसाय संबंधी परेशानियाँ होती हैं। प्रत्येक भावानुसार फल का विचार होता है।
किसी कुंडली में लग्नेश यदि त्रिक भाव (6, 8 या 12) में स्थित हो तथा राहु लग्न भाव में हो तब भी पितृ दोष होता है। पितृयोग कारक ग्रह पर यदि त्रिक (6, 8,12) भावेश एवं भावों के स्वामी की दृष्टि अथवा युति का संबंध भी हो जाए तो अचानक वाहनादि के कारण दुर्घटना का भय, प्रेत बाधा, ज्वर, नेत्र रोग, तरक्की में रुकावट या बनते कार्यों में विघ्न, अपयश, धन हानि आदि अनिष्ट फल होते हैं।
चंद्र-राहु, चंद्र-केतु, चंद्र-बुध, चंद्र-शनि आदि योग भी पितृ दोष की भाँति मातृ दोष कहलाते हैं। इनमें चंद्र-राहु एवं सूर्य-राहु योगों को ग्रहण योग तथा बुध-राहु को जड़त्व योग कहते हैं।
इन योगों के प्रभावस्वरूप भी भावेश की स्थिति अनुसार ही अशुभ फल प्रकट होते हैं। सामान्यतः चन्द्र-राहु आदि योगों के प्रभाव से माता अथवा पत्नी को कष्ट, मानसिक तनाव, आर्थिक परेशानियाँ, गुप्त रोग, भाई-बंधुओं से विरोध, अपने भी परायों जैसे व्यवहार रखें आदि फल घटित होते हैं।
दशम भाव का स्वामी छठे, आठवें या बारहवें भाव में हो और इसकी राहु से - दृष्टि या संयुति संबंध हो तो भी पितृ दोष होता है। यदि आठवें या बारहवें भाव में गुरु-राहु का योग और पंचम भाव में सूर्य-शनि या मंगल आदि क्रूर ग्रहों की स्थिति हो तो पितृ दोष के कारण संतान कष्ट या संतान सुख में कमी रहती है।
अष्टमेश पंचम भाव में तथा दशमेश अष्टम भाव में हो तो भी पितृ दोष के कारण धन हानि अथवा संतान के कारण कष्ट होते हैं। यदि पंचमेश संतान कारक ग्रह राहु के साथ त्रिक भावों में हो तथा पंचम में शनि आदि क्रूर ग्रह हों तो भी संतान सुख में कमी होती है।
इस प्रकार राहु अथवा शनि के साथ मिलकर अनेक अनिष्टकारी योग बनते हैं, जो पितृ दोष की भाँति ही अशुभ फल प्रदान करते हैं। बृहत्पाराशर होरा शास्त्र में कुंडली में इस प्रकार के शापित योग कहे गए हैं। इनमें पितृ दोष श्राप, भ्रातृ श्राप, मातृ श्राप, प्रेम श्राप आदि योग प्रमुख हैं।
अशुभ पितृ दोषों, योगों के प्रभावस्वरूप जातक के स्वास्थ्य की हानि, सुख में कमी, आर्थिक संकट, आय में बरकत न होना, संतान कष्ट अथवा वंशवृद्धि में बाधा, विवाह में विलम्ब, गुप्त रोग, लाभ व उन्नति में बाधाएं, तनाव आदि अशुभ फल प्रकट होते हैं।
कुंडली मे बनने वाले गंभीर दोष
उपाय